Friday 7 March 2014


भारतीय राजनीति में महिलाओं का हिस्सा

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र देश है.भारत को स्वतंत्र हुए छह दशक बीत हैं.इस अवधि में समाज में बहुत कुछ बदला है.स्वतंत्रता के बाद हमारे यहाँ जो लोकतांत्रिक प्रणाली लायी गयी वह वैश्विक मताधिकार पर आधारित है.नागरिकों को मिले सामान अधिकारों के साथ ही भारतीय महिलाओं को समान शैक्षिक अवसर ,संपत्ति और विरासत में बराबर का अधिकार प्राप्त हुआ,जिससे सामजिक स्तर पर स्त्रियों की स्थिति में सुधार आया.लेकिन राजनितिक मानचित्र फिर भी नै बदला.
महिलाओं की स्थिति की विवेचना करने के लिए तत्कालीन सरकार ने 22 सितंबर 1971 को एक समिति का गठन किया. ‘Towards quality’ शीर्षक से 1974 में प्रकाशित इस समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि “संस्थागत तौर पर सबसे बड़ी अल्पसंख्यक होने के बावज़ूद राजनीति का असर नाम मात्र है”.इस संबंध में समिति ने सुझाव दिया था कि इसका उपाए यही है कि हर राजनीती दल महिला उम्मीदवारों का एक कोटा निर्धारित करे और फौरी उपाए के तौर पर समिति ने नगर परिषदों और पंचायतों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने के लिए संविधान में संशोधन के माध्यम से ऐसा किया भी.पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान महिला सशक्तिकरण तथा निर्णय प्रकिर्या में उनकी सहभागिता में वृद्धि की दिशा में एक क्रांतिकारी काम था.

अगर महिलाओं को संसद तथा विधानमंडल में भी आरक्षण प्राप्त होगा तो एक तरफ महिलाएं चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा बनेंगी  और दूसरी तरफ राजनितिक सक्रिय सहभागिता का अवसर प्राप्त होगा,जिससे महिला सशक्तिकरण की अवधारणा मूर्त रूप ग्रहण कर सकेगी.यह आरक्षण उन्हें संकीर्ण व सीमित दायरे से बहार लाने में मददगार साबित होगा.अब ज़रुरत है बस इस बात की कि सभी राजनितिक दल एक जूट होकर संसद में लंवित महिला आरक्षण बिल को पास करे ताकि अब और शोषण न हो सके. 

महिला सशक्तिकरण में पंचायती राज की भूमिका

चूँकि भारतीय ग्रामीण महिलाएं जीवन के सभी क्षेत्रों में पिछड़ी रही हैं.इसीलिए उनके सशक्ति कारन के लिए किये जा रहे प्रयासों की समीक्षा कर अब तक की उपलब्धियों ,समस्याओं एंव कमियों का विश्लेषण करते हुए सार्थक एंव उपयोगी को अपनाना आवश्यक है.भारत में केंद्र एंव राज्य सरकारों के विभिन्न प्रशासनिक,वैधानिक,राजनीतिक एंव आर्थिक कार्यकर्मो  और योजनाओं के साथ भारतीय पंचायती राज व्यवस्था ने ग्रामीण महिला सशक्तिकरण में उल्लेखनीय योगदान किया है.73वें संविधान संशोधन के बाद गरमीं महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आया.इसलिए इस संशोधान से संबंधित प्रावधानों के को अम्ल में लाने व उनके प्रभावों का विश्लेषण  आवश्यक है.
क्या ग्रामीण महिलाओं का पंचायती राज से वास्तव में सशक्तिकरण हुआ है ?और अगर हाँ ,तो किस सीमा तक एंव किन अर्थों में?ये कुछ एसे प्रश्न हाँ जिनपर अब विचार करने की आवश्यकता है ,क्यूंकि पंचायती राज लागू हुए अब दो दशक हो गए हैं.इस लिए इस व्यवस्था का महिला सशक्ति कारन की दृष्टि से मूल्यांकन आवश्यक है.

इसमें कोई संदेह नहीं कि पंचायती राज महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया है लेकिन सशक्तिकरण की मात्रा क्षेत्र एंव परिस्थितियों के अनुसार भिन्न रही है.जिन पंचायती संस्थाओं में महिला प्रतिनिधि स्वंय मामलों को देखती है ,निर्णय प्रक्रिया में पूर्ण सक्रियता से भाग लेती हैं और समुदाय के विकास कार्कर्मों को बहरी एजेंसियों से सक्रियता से करवा पाती है तो कहा जा सकता है कि उन महिला प्रतिनिधियों का पूर्ण सशक्तिकारन हुआ है.दूसरी ओर अगर महिला प्रतिनिधि अपने घर से स्वतंत्र रूप से बाहर नहीं आतीं,घूँघट नहीं हटा पाती और अपने पति या संबंधी के कहने पर ही दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करती हैं,तो कहा जा सकता है कि उन महिला प्रतिनिधियों का सशक्तिकरण नहीं हुआ है.भारत में पंचायती राज संस्थाओं में अभी भी ये दोनों स्थितियाँ देखने को मिलती हैं.इस प्रकार सशक्तिकरण का परिणाम विभिन्न स्थानों एंव परिस्थितियों में भिन्न रहा है.वर्तमान में यह प्रवृत्ति देखने को मिल रही है कि पंचायती राज की महिला प्रतिनिधि अकेले सार्वजनिक क्षेत्रों में एंव अपने कार्यालयों में जाने लगी हैं,पुरुष प्रतिनिधियों के साथ कुर्सियों पर बैठने लगी हैं,सार्वजनिक चार्चाओं में हिस्सा लेने लगी हैं और ये सभी कदम उनके सशक्तिकरण को बढ़ाबा दे रहें हैं. निकट भविष्य में पंचायती राज में महिलाओं की सहभागिता से ग्रामीण क्षेत्रों में महिला साक्षरता एंव शिक्षा को बढ़ावा मिलेगा.इसी प्रकार महिला शैक्षिक सशक्तिकरण होने से अगली पीढ़ी की महिला प्रतिनिधि बेहतर शिक्षित रहेगी और पंचायत के मामलों को सही से संभाल पाएगी.अतः यह खा जा सकता है कि धीरे धीरे ही सही पर महिला सशक्तिकारन हो रहा है. 

समाज में नारी की जगह

दोस्तों नारी का नाम सुनते ही वो कई रूपों में हमारे सामने आकर साक्षात हो जाती है.किसी की माँ,किसी की बहन तो किसी की पत्नी.और हाँ सब में बढ़ कर वो अपने आप में एक स्वतंत्र व्यक्तित्व लिए एक नारी होती है.लेकिन आज जो महिलाओं के सामने सबसे बड़ी चुनौति है वह यह कि पुरुष उन्हें एक स्वतंत्र व्यकतित्व मानने  के लिए तैया ही नही है .प्रकृति ने इंसान की ज़िन्दगी के दो पहिये बनाई है.पुरुष और नारी.
सोंचिये अगर स्कूटर का एक पहिया निकाल दिया जाये तो क्या होगा?सीधा सा उत्तर है कि स्कूटर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पायेगा.ये दोनों पहिया एक दोसरे को सहयोग करतें है तभी आगे बढ़ पातें हैं.वैसे ही दोस्तों नर और नारी भी है.ये दोनों ऐसे दो पहिये हैं जिनमें से एक के बिना भी जीवन रुपी गाड़ी  एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती.
इसके पीछे करण किया है?आखिर वो कौन सी सकती है जो संसार के इक्कीसवीं सदी में कदम डाल देने के बाद भी महिलाओं के विकास में रोडें अटका रही है?कहीं महिला खुद भी ऐसी शक्ति को स्वीकृति अप्रत्यक्ष रूप से तो नहीं दे रहीं हैं?मैं महिलाओं को भी उनकी इस स्थति के लिए जिम्मेवार मानता हूँ.यह आरोप तब सहज ही साबित हो जाता है जब अपनी सास ही बहु को कम दहेज़ लाने के कारण आग के हवाले या छत से कूद कर जान देने के लिए मजबूर करती है.इससे यह साबित होता है कि महिला को केवल पुरुष से ही नहीं बल्कि अपने आप से भी लड़ना है.
इसके साथ ही मैं यह भी कहना चाहूँगा कि ऐसा नहीं है कि महिलाओं की स्थिति में आज ज़रा भी सुधार नहीं आया है,सुधार तो अवश्य आया है पर यह कह देना उचित नहीं होगा कि महिलाओं को उनका उचित स्थान दे दिया गया है.महिलाओं को यदि अपने आप को सशक्त करना है तो उन्हें पुरुष द्वारा बिछाए गए जाल को पहचानना होगा.न केवल पहचानना बल्कि उसे काटना भी होगा.

नारी और शिक्षा

शिक्षा एक ऐसा हथियार है,जो अंधविश्वासों को दूर करती है और साथ ही अज्ञानता को भी भी मिटाने का काम करती करती है.सामान्यतया जहाँ शिक्षा होती है वहां रूढ़िवादिता भी कम होती है.अगर आज संसार का एक बहुत बड़ा तबका पिछड़ा हुआ है तो उसमें भी कहीं न कहीं शिक्षा का बहुत बड़ा हा है.जो वर्ग शिक्षित होतें हैं सारी शक्ति उन्ही के पास होती है.भारत में महिला व दलित दोनों आर्थिक व सामाजिक दोनों रूप से पिछड़े हुए हैं तो उसमें  कहीं न कहीं सिक्षा की भी बहुत बड़ी भूमिका है.
यदि हम प्राचीन काल में देखे तो अवश्य ही कुछ शिक्षित महिलाएं मिल जांएगी पर ऐसी महिलाओं की संख्या ऊँगली पर गिनने लायक है.यदि आप इतिहास पढेंगे तो आप को कुछ ही विद्वान महिलाओं के बारें में घुमा-फिराकर बताया जाता है.इनमें से कुछ गार्गी,घोषा,इन्द्राणी आदि प्रमुख है.
खैर ये तो बीतें हुए कल की बातें हैं जो कभी लौट कर नहीं आती.पर यदि वर्तमान में भी देखें तो स्त्री-पुरुष शिक्षा के अनुपात में भारी अंतर है.भारतीय शहरों का तो ठीक ठाक हाल फिर भी कहा जा सकता है,किन्तु जब हम ग्रामीण भारत की बात करतें हैं तो समस्या कुछ ज़्यादा ही विकराल है.सबसे पहली बात की भारत की सत्तर प्रतिशत से अधिक आवादी गांवों में निवास करती है जहाँ स्त्री-शिक्षा का बहुत ही बुड़ा हाल है.जागरूकता की कमी व अति-रूढ़िवादिता के कारण माँ-बाप खासकर अपनी बालिकाओं को स्कूल नहीं भेजतें हैं.भारतीय गांवों में लोग यह मान कर चलते हैं कि बेटी को ज़्यादा पढ़ाने से बिगड़ सकती है.और भी न जाने किस-किस तरह की सोंच लोगों में घर कर चुकी है.
यदि आधी आवादी को शिक्षा से महरूम किया जा रहा है तो इसको किसी भी दृष्टि से बुद्धिमानी इस आधी आवादी को सशक्त नहीं किया जा सकता है सकता.इसके लिए हमारी सरकार को व साथ ही साथ आम लोगों को भी पप्रतिबद्ध होने की आवश्यकता है.हाँ मैं एक बात और कहना चाहूंगा की जो महिलाये समाज के में याक स्थान पा चुकीं हैं उनका यह दायित्व है कि समाज की उन महिलाओं का को आगे लाने में सहयोग दे जो आज भी किसी न किसी कारन से पिछड़ी हुई है.जो महिलाऐं आर्थिक रूप से मज़बूत स्थति में हैं वें गरीब बालिकाओ को आर्थिक से मदद करके भी शिक्षा प्राप्त करने में मदद कर सकती हैं.